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वीरेंद्र सिंह, चुनावी रणनीतिकार

पंजाब में 2022 के विधानसभा चुनाव में दलित मतदाता सरकार बनाने में बड़ी भूमिका निभा सकते हैं। पंजाब में जाट सिखों के बाद सबसे बड़ी आबादी दलितों की ही है। ये आंकड़ा करीब 32 फीसदी बैठती है। इस बार के चुनाव में दलितों को लेकर सबसे बड़ा दांव अकाली दल ने बीएसपी के साथ गठबंधन का ऐलान करके चला है। कैप्टन अमरिंदर सिंह और नवजोत सिंह सिद्धू के झगड़े से जूझ रही कांग्रेस ने भी चरणजीत सिंह चन्नी को सीएम बनाकर एक तीर से कई शिकार कर डाले हैं। चन्नी दलित समुदाय से आने वाले पंजाब के पहले मुख्यमंत्री हैं।

पंजाब में जाट सिखों का वर्चस्व

साल 2011 की जनगणना के मुताबिक, पंजाब में कुल आबादी करीब तीन करोड़ है। इस आबादी में 60 फीसदी सिख और 40 फीसदी हिंदू हैं। राज्य में दलित 32 फीसदी, ओबीसी 31 फीसदी, जाट सिख 19 फीसदी, ब्राह्मण, राजपूत, वैश्य, खत्री, अरोड़ा और सूद 14 फीसदी हैं। अल्पसंख्यक करीब 4 फीसदी हैं जिनमें मुस्लिम, बौद्ध, ईसाई और जैन शामिल हैं। पंजाब की आर्थिक और सामाजिक व्यवस्था में जाट सिखों का दबदबा है।

साल 2007 और साल 2012 के पंजाब विधानसभा चुनाव में अकाली दल-बीजेपी गठबंधन ने लगातार सरकार बनाई थी। इन चुनावों में जाट सिखों ने गठबंधन को जबरदस्त समर्थन दिया था। साल 2002 के चुनाव में 55 फीसदी जाट सिख शिरोमणि अकाली दल-बीजेपी गठबंधन के साथ रहे थे।

2007 के विधानसभा चुनाव में भी अकाली दल-बीजेपी को जाट सिखों ने दिल खोलकर समर्थन दिया और ये आंकड़ा 61 फीसदी तक पहुंच गया। इसके बाद 2012 के चुनाव में जाट सिखों के 52 फीसदी वोट इस गठबंधन को मिले।

2017 में बदल गए थे समीकरण

पंजाब की राजनीति में सबसे बड़ा मोड़ साल 2017 में आया। हालांकि साल 2014 के लोकसभा चुनाव से ही संकेत मिलने लगे थे कि इस राज्य की दोध्रुवीय राजनीति को बहुध्रुवीय होने में अब ज्यादा वक्त नहीं लगेगा।
आम आदमी पार्टी के आने से पहले पंजाब के वोटरों के पास कांग्रेस और अकाली-बीजेपी गठबंधन के अलावा कोई और विकल्प नहीं था। भले ही दोनों पार्टियों की सरकारें अच्छा काम न करें लेकिन चुनाव इन्हीं दोनों में किसी एक करना था।
2017 के विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी ने जाट सिख वोटों में खासा बंटवारा कर दिया और 30 फीसदी वोट बटोर लिए जबकि अकाली-बीजेपी गठबंधन के हिस्से में 37 फीसदी वोट आए। वहीं दूसरी ओर सरकार बनाने वाली कांग्रेस के खाते में जाने वाले जाट सिखों के वोटों में कोई बदलाव नहीं आया। पंजाब में इस तबके के वोट कांग्रेस को मिलते रहे हैं।

कांग्रेस को मिलता रहा है दलित सिखों का साथ

साल 2002 में कांग्रेस को 33 फीसदी वोट दलित सिखों ने दिए। फिर साल 2017 में 41 फीसदी वोट मिले। दोनों ही बार कांग्रेस ने सरकार बनाई, लेकिन आंकड़ा यह दिलचस्प है कि साल 2007 में 49 फीसदी और 2012 में 51 फीसदी वोट पाकर भी कांग्रेस को हार का सामना करना पड़ा। साल 2017 के चुनाव में आम आदमी पार्टी को दलित सिखों के 23 फीसदी वोट मिले थे।
पंजाब में हिन्दू वोटर कांग्रेस को वोट देते रहे हैं। साल 2002 में इनके 47 और साल 2017 में 43 फीसदी वोट कांग्रेस को मिले थे। इसके अलावा 2007 और 2012 में भी हिन्दू वोटरों ने कांग्रेस का ही अच्छा-खासा समर्थन किया था।
बात अगर गैर दलित हिन्दू वोटरों की करें तो इनके वोट पंजाब की राजनीति में निर्णायक साबित हो सकते हैं। साल 2002 के चुनाव में कांग्रेस को 52 फीसदी वोट मिले थे तो साल 2017 में 48 फीसदी। 2007 के चुनाव में अकाली-बीजेपी गठबंधन को 38 फीसदी वोट मिले थे जबकि इससे पहले चुनाव में 12 फीसदी ही वोट मिले थे। यानी इस तबके ने जिसको वोट दिया सरकार बनाने में वह पार्टी कामयाब रही थी।

साल 2017 में आम आदमी पार्टी ने इन वोटों में भी बंटवारा किया और उसे 23 फीसदी वोट मिले थे। जबकि अकाली-बीजेपी गठबंधन को मात्र 14 फीसदी ही वोट मिले।

अभी विधानसभा चुनाव का ऐलान होना बाकी है, लेकिन अभी के जमीनी हालात की बात करें तो किसी भी दल की ओर मतदाता का एकतरफा रुझान नहीं है। कांग्रेस और आम आदमी पार्टी की ओर से मुख्यमंत्री पद का कोई प्रभावी चेहरा तय नहीं किया गया तो विकल्प न होने की स्थिति में मतदाता अकाली दल की ओर भी मुड़ सकता है।
मौजूदा स्थिति में मतदाता बंटा हुआ है और किसी भी दल को पूर्ण बहुमत के लिए कुल 117 सीटों में से 59 सीटें मिलती नहीं दिखाई देती हैं।
कांग्रेस ने भले ही दलित समुदाय से आने वाले चरणजीत चन्नी को मुख्यमंत्री बना दिया लेकिन दलितों का 32 फीसदी वोटर बंटा हुआ है। चन्नी के प्रभाव से कांग्रेस के पक्ष में मात्र आठ फीसदी अनुसूचित जाति का मतदाता जाता दिखाई देता है। जाट सिख करीब पच्चीस फीसदी हैं और वह भी बंटा हुआ है।
नवजोत सिंह सिद्धू के जाट सिख होने के बावजूद कांग्रेस को सभी जाट सिख वोट नहीं मिलेंगे। पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह भी दलित और जाट सिख वोट का बंटवारा करेंगे।
चन्नी के मंत्रिमंडल में शामिल कई नेताओं की भी जमीनी हालत ठीक नहीं है और उनके दोबारा जीतकर आने की संभावना कम हैं। ओबीसी मतदाता भी सभी दलों के बीच बंटा हुआ है’।
जाट सिख परंपरागत तौर पर अकाली-बीजेपी गठबंधन को वोट देता रहा है। यह गठबंधन भी बीते साल टूट चुका है। जातियों के बीच दलों के प्रति झुकाव भी बदल रहा है।
जट्ट सिखों में पहले अकाली दल-बीजेपी और फिर कांग्रेस का दबदबा रहा। दलित सिख भी इसी तरह अकाली दल और बाद में कांग्रेस के साथ रहे। पंजाब में मुसलमान कांग्रेस के साथ तो हिंदू वोटर कांग्रेस और बीजेपी दोनों के साथ रहे।
जातिगत उलझन की स्थिति में पंजाब को समझना किसी के लिए भी आसान नहीं है। लेकिन मोटे तौर पर यह कहा जा सकता है कि इस बार पंजाब में किसी भी पार्टी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिल सकता है और मुख्य मुकाबला कांग्रेस और अकाली दल के बीच होने की संभावना है और इस जाति की उलझन में आम आदमी पार्टी काफी पीछे छूट गई है।
(ये लेखक के निजी विचार हैं।)

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